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    जिसे हम सुख कहते हैं , उसका सुख से कोई संबंध नहीं है - ओशो

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    जिसे हम सुख कहते हैं , उसका सुख से कोई संबंध नहीं है - ओशो 

    सुना है मैंने, कोई नाव उलट गई थी। एक व्यक्ति उस नाव में बच गया और एक निर्जन द्वीप पर जा लगा। दिन, दो दिन, चार दिन; सप्ताह, दो सप्ताह उसने प्रतीक्षा की कि जिस बड़ी दुनिया का वह निवासी था, वहां से कोई उसे बचाने आ जाएगा। फिर महीने भी बीत गए और वर्ष भी बीतने लगा। फिर किसी को आते न देखकर वह धीरे-धीरे प्रतीक्षा करना भी भूल गया। पांच वर्षों के बाद कोई जहाज वहां से गुजरा, उस एकांत निर्जन द्वीप पर उस आदमी को निकालने के लिए जहाज ने लोगों को उतारा। और जब उन लोगों ने उस खो गए आदमी को वापस चलने को कहा, तो वह विचार में पड़ गया।

            उन लोगों ने कहा, 'क्या विचार कर रहे हैं, चलना है या नहीं?' तो उस आदमी ने कहा, 'अगर तुम्हारे साथ जहाज पर कुछ अखबार हों जो तुम्हारी दुनिया की खबर लाए हों, तो मैं पिछले दिनों के कुछ अखबार देख लेना चाहता हूं।'

            अखबार देखकर उसने कहा, 'तुम अपनी दुनिया सम्हालो और अखबार भी, और मैं जाने से इनकार करता हूं।' बहुत हैरान हुए वे लोग। उनकी हैरानी स्वाभाविक थी। पर वह आदमी कहने लगा, 'इन पांच वर्षों में मैंने जिस __ शांति, जिस मौन और जिस आनंद को अनुभव किया है, वह मैंने पूरे जीवन के पचास वर्षों में तुम्हारी उस बड़ी दुनिया में कभी अनुभव नहीं किया था। और सौभाग्य, और परमात्मा की अनुकंपा कि उस दिन तूफान में नाव उलट गयी और मैं इस द्वीप पर आ लगा। यदि मैं अभी इस द्वीप पर न लगा होता, तो शायद मुझे पता भी न चलता कि मैं किस बड़े पागलखाने में पचास वर्षों से जी रहा था।

            हम उस बड़े पागलखाने के हिस्से हैं; उसमें ही पैदा होते हैं, उसमें ही बड़े होते हैं, उसमें ही जीते हैं और इसलिए कभी पता भी नहीं चल पाता कि जीवन में जो भी पाने योग्य है, वह सभी हमारे हाथ से चूक गया है। और जिसे हम सुख कहते हैं और जिसे हम शांति कहते हैं, उसका न तो सुख से कोई संबंध है और न शांति से कोई संबंध है। और जिसे हम जीवन कहते हैं, शायद वह मौत से किसी भी हालत में बेहतर नहीं है।

            लेकिन परिचय कठिन है। चारों ओर एक शोरगुल की दुनिया है। चारों ओर शब्दों का, शोरगुल का उपद्रवग्रस्त वातावरण है। उस सारे वातावरण में हम वे रास्ते ही भूल जाते हैं, जो भीतर मौन और शांति में ले जा सकते हैं।

            इस देश में और इस देश के बाहर भी कुछ लोगों ने अपने भीतर भी एकांत द्वीप की खोज कर ली है। न तो यह संभव है कि सभी की नावें डूब जाएं; न यह संभव है कि इतने तूफान उठे; और न यह संभव है कि इतने निर्जन द्वीप मिल जाएं, जहां सारे लोग शांति और मौन को अनुभव कर सकें। लेकिन, फिर भी यह संभव है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर ही उस निर्जन द्वीप को खोज ले। 

    - ओशो 

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